नमस्कार मेरे आध्यात्मिक मित्रों 🙏, ये आर्टिकल आपको बताएगा धर्म का वास्तविक अर्थ। आर्टिकल में हमने धर्म को लेकर कई सारी रूढ़ियों को उजागर किया है और सही धर्म को पहचानने के लिए प्रोत्साहित भी किया है।
हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई ये कोई धर्म नहीं है। ये तो ग्रुप ऑफ सिविलाइजेशन है जहां पर लोग अपने विचारों और तथ्यों के आधार पर बंटे हुए है।
आपने कभी सुना है गीता में हिंदू धर्म, बिल्कुल नहीं क्यों कि कृष्ण ने गीता में धर्म युक्त जीवन जीने की बात कि है ना कि खुद को हिंदू कहके मानवता को बांटने को कहा है।
अक्सर लोग धर्म को केवल पूजा-पाठ, मंदिर-मस्जिद या किसी विशेष धार्मिक रीति-रिवाज़ तक सीमित समझ लेते हैं, लेकिन असली धर्म का अर्थ इससे कई व्यापक और गहरा होता है।
धर्म का वास्तविक अर्थ "कर्तव्य" होता है — यानी जीवन में हमारे जो नैतिक और सामाजिक उत्तरदायित्व हैं, उन्हें निभाना ही धर्म है। यह सिर्फ किसी विशेष समुदाय या मज़हब से जुड़ा नहीं होता, बल्कि यह हर व्यक्ति का व्यक्तिगत और पारिवारिक दायित्व होता है।
उदाहरण के लिए:
- माँ और बहनों के साथ स्नेह, आदर और सुरक्षा का व्यवहार करना — यही एक बेटे और भाई का धर्म है।
- पिता के साथ सम्मानपूर्वक, आज्ञाकारी और जिम्मेदार तरीके से व्यवहार करना — यही पुत्र का धर्म है।
- भाई के साथ सहयोग, एकता और विश्वास बनाए रखना — यही भाईचारे का धर्म है।
- पत्नी के साथ प्रेम, ईमानदारी और बराबरी का व्यवहार करना — यह पति का धर्म है।
- समाज में सत्य, न्याय, करुणा और सेवा की भावना से कार्य करना — यह एक नागरिक का धर्म है।
असली धर्म तो मानवता को ऊपर उठाने का काम करता है ना कि मानवता का बटवारा करने का। स्त्रियों की रक्षा करना, सत्य का साथ देना, और सभी जीवों के प्रति करुणा रखना असली धर्म है।
आज के समाज में अधिकतर लोग मानवता के विरुद्ध काम करते है और फिर गर्व से कहते है को मै इस xyz धर्म से है।
ऐसे लोग सच कहूं तो किसी भी धर्म या जाती के लायक नहीं है, ये लोग जानवरों के समान है।
आज हमारी बहु, बेटियां क्यों सुरक्षित नहीं है, क्यों कि धर्म मर चुका है। लोग भूल चुके है कि उनका बहु बेटियों के प्रति क्या धर्म है या क्या कर्तव्य है। हर घर में हमे आजकल एक न एक रावण देखने को मिलता है जो सभी लोगों का शोषण करता है और खुद को धार्मिक व्यक्ति मानता है।
आज के समय में धर्म को हमने एक बाहरी आडंबर बना दिया है, जबकि असली साधना तो अपने भीतर झाँकने, आत्मनिरीक्षण करने और आत्मसंयम से जीवन जीने में है।
हमने अपने शरीर को सिर्फ भोग-विलास का साधन समझ लिया है, जबकि यह शरीर तो आत्मसाधना का सबसे बड़ा उपकरण है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने शरीर को तप और ब्रह्मचर्य के माध्यम से शुद्ध किया था ताकि वे आत्मा के साक्षात्कार की ओर बढ़ सकें। लेकिन आज की पीढ़ी इस मूल तत्व को भूल चुकी है। ब्रह्मचर्य, जो कभी आत्मबल और दिव्यता का प्रतीक था, अब एक हास्यास्पद और पुरानी बात समझी जाने लगी है।
लोग धर्म का दिखावा तो करते हैं — मंदिर जाते हैं, घंटियाँ बजाते हैं, आरती में खड़े होते हैं — लेकिन भीतर की सच्चाई को देखने का साहस नहीं रखते। खुद के भीतर झाँकने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि वहाँ उन्हें अपना अहंकार, वासना, छल-कपट, और असत्य दिखाई देगा। ऐसे में सच्चा धर्म कहां रह गया?
सच्चा धर्म तो वह है जो आत्मा की सफाई करे, जो मन को वश में करे, जो इंद्रियों पर संयम सिखाए। लेकिन आज के समय में व्यक्ति बाहर की सजावट में तो लगा है — नए वस्त्र, धार्मिक आयोजनों, और बड़े-बड़े प्रवचनों में — लेकिन भीतर का ‘मैं’ अभी भी उतना ही अशुद्ध है।
हम तब तक धार्मिक नहीं कहला सकते जब तक हम अपने विचारों, इच्छाओं और कर्मों को शुद्ध नहीं करते। ब्रह्मचर्य केवल एक नियम नहीं, एक सम्पूर्ण जीवनशैली है — जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक दिशा में साधा जाता है।
जिनको ये आभास नहीं है कि मानव देह क्यों मिला है और इसको इस्तेमाल करके कैसे उस परम शक्ति में विलीन हुआ जा सकता है, वो सभी कही न कही जाने अनजाने में इस मानवता के खिलाफ काम कर रहे है।
आप चाहे कितने भी ग्रंथ पड़ लो, कितनी भी डिग्रियां कर लो, कितना भी पैसा और नाम कमा लो लेकिन अंदर सुकून तभी मिलेगा जब आप अपने असली धर्म को नहीं पहचानोगे।
श्रीकृष्ण ने भी स्पष्ट कहा है कि कोई व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र उसके जन्म से नहीं बल्कि उसके गुण, स्वभाव और कर्मों से निर्धारित होता है।
तो आइये, धर्म को समझें, धर्म को जिएं — और मानवता को बचाएं।
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आप सभी को ॐ 🙏।